Monday 7 October 2013

सूक्त - 191


[ऋषि - संवनन । देवता -1 अग्नि , 2-4 संज्ञान । छन्द- अनुष्टुप , 3- त्रिष्टुप । ]

10549 ." संसमिद्युवसे वृषन्नग्ने विश्वान्यर्य आ ।
इळस्पदे समिध्यसे स नो वसून्या भर ॥1॥"

"हे सुखदाता अग्निदेव भू को आलोक प्रदान करें ।
हो सभी तत्व में विद्यमान वैभव-ऐश्वर्य प्रदान करें ॥1॥

10550 . सङ्गच्छध्वं सं वदध्वं सं वो मनांसि जानताम् ।
देवा भागं यथा पूर्वे सञ्जानाना उपासते ॥2॥

संग-संग ही चलो परस्पर स्नेह-पूर्ण व्यवहार करो ।
ज्ञानार्जन से बढो निरंतर वसुधा का हित स्वीकार करो ॥2॥

10551. समानो मन्त्रः समितिः समानी समानं मनः सह चित्तमेषाम् ।
समानं मन्त्रमभि मन्त्रये वः समानेन वो हविषा जुहोमि ॥3॥

सबका हित हो ध्येय तुम्हारा तुम सबका चिन्तन हो एक ।
मन-मति एक समान सभी का चितन-मनन सदा हो नेक ॥3॥

10552. समानी व आकूतिः समाना हृदयानि वः ।
समानमस्तु वो मनो यथा वः सुसहासति ॥4॥

भाव-भूमि निर्मल देता हूँ संकल्प -सोच हो एक -समान ।
संग-संग तुम चलो निरंतर पूर्ण -काम हो बनो महान ॥4॥ "

॥ इति दशमं मण्डलं समाप्तम्  ॥

॥  इति ऋग्वेदसंहिता समाप्ता  ॥

शकुन्तला शर्मा , भिलाई  [ छ. ग. ]